Vishwasghat - 1 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | विश्वासघात--भाग(१)

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विश्वासघात--भाग(१)


नन्दपुर गाँव___
ओ..बेला की माँ !जरा सम्भालों तो अपने लाल को देखो तो बस,रोए ही जा रहा है, दयाशंकर ने अपनी पत्नी मंगला से कहा।।
आती हूँ जी! तुम्हारा ही तो काम कर रही थीं, तुम्हारे रास्ते के लिए कुछ सूखा नाश्ता बना रही थी जो दो चार दिन चल सकें,तुम बाहर गाँव जाते हो जी !तो मुझे यहाँ खटका सा लगा रहता ,कभी दस दिन में लौटते हो तो कभी पन्द्रह दिन में और मैं यहाँ बच्चों को लिए पड़ी रहती हूँ और फिर इस गाँव में और आस पास के गाँवों में डकैतों का कितना खतरा बढ़ गया है, अब तो कभी कभार दिनदहाड़े भी आ जाते हैं और कुछ ना मिलने पर लोगों का कत्ल करके भाग जाते हैं, तुम वहाँ बाहर गाँव अपनी टोली के साथ जाते हो तो मन में एक डर सा बैठा रहता है कि बस तुम सही सलामत रहो, मंगला बोली।।
अब क्या करूँ? मेरा काम ही ऐसा है, मुझे भी ऐसे अच्छा थोड़े ही लगता है तुम लोगों से दूर रहना पर क्या करूँ रोजी रोटी का सवाल जो है अगर ये काम नहीं करूँगा तो खाएंगें क्या? बाप दादा कुछ जमीन का टुकड़ा ही छोड़कर गए होते तो उसी में गुजर बसर बसर हो जाती लेकिन ऐसा भी तो नहीं है, यहाँ बड़े आदमियों के यहाँ काम करो और उतनी मजदूरी भी तो नहीं मिलती ऊपर से गालियाँ भी खाओं,इससे अच्छा तो अपना ये काम ही भला,कम से कम इज्जत की रोटी तो मिलती हैं, दयाशंकर बोला।।
सही कहते हो जी! इस पापी पेट के लिए ना जाने क्या क्या करना पड़ता है?वो तो भला हो लीला जीजी का जो उनकी वजह से तुम्हें ये काम मिल गया नहीं तो बड़ी मुश्किल से दिन कट रहे थे,वो तो हमारे लिए लक्ष्मी का रूप बनकर आईं हैं, मंगला बोली।।
अच्छा सुनो तो इस बार अलग दो जोड़ी और धोती कुर्ता रख देना,ना जाने कितने दिन और ठहरना पड़ जाएं और हाँ पानी पीने के लोटा और खाने के लिए थाली रखना मत भूलना,पिछली बार दिक्कत हो गई थीं,वो तो भला हो लीला जीजी का जो उनके पास गिलास था और एक दूसरे पास दो थालियाँ थीं तो काम चल गया था,दयाशंकर बोला।।
हाँ...हाँ..सब याद से रख दिया है, अब लगता हैं कि बुढ़ापा आ गया है जी! अब चींजें भूलनें लगी हूँ,मंगला बोली।।
अभी कहाँ बुढ़ापा आ गया है बेला की माँ! अभी तो तुम वैसे ही दिखती हो जब तुम गौना होकर आईं थीं,लाल साड़ी,लाल चूड़ियाँ, मेंहदी रची हथेलियाँ, महावर लगे पाँव,पतली सी कमर मे करधनी और इत्ता लम्बा घूँघट,पता है मैं बैलगाड़ी में रास्ते भर तुम्हारा मुँह देखने की कोशिश करता रहा कि पल्लू तनिक तो इधर उधर हो और मैं तुम्हारा चाँद सा मुँखड़ा देख पाऊँ लेकिन इतनी तुम शातिर निकली की तनिक भी घूँघट हटने ना दिया और मैं तरस कर रह गया और जब मैनें पहली बार तुम्हारा घूँघट हटाया तो मन में सोचा कि सचमुच ही बादलों का चाँद मेरी झोली में आ गिरा है, दयाशंकर बोला।।
अरे,हठो जी! तुम भी क्या ये हँसी ठिठोली लेकर बैठ गए, मंगला बोली।।
हाँ,बेला की माँ! तू अब भी वो लाल रेशमी साड़ी पहनकर निकलती है तो,अब भी मेरे होश़ उड़ जाते हैं, दयाशंकर बोला।।
रहने दो जी,अब जरा अपनी सन्दूक का समान देख लो ,पूरा है कि नहीं, कहीं कुछ छूटा तो नहीं, फिर ना कहना कि ये छूट गया वो छूट गया और हाँ मैने तुम्हारी सफर वाली लालटेन का शीशा भी साफ कर दिया है याद से रख लीजो,मंगला बोली।।
हाँ रखता हूँ, सब याद से रख लेता हूँ, लीला जीजी भी आने वाली होगी,दयाशंकर बोला।।
हाँ और बैलों को जब तक थोड़ा और भूसा पानी दे दो,लम्बा सफर जो करना है,मैं जब तक बाहर देखकर आती हूँ कि बच्चे अभी तक पाठशाला क्यों नहीं लौटे,मंगला बोली।।
हाँ,मैं सब देख लेता हूँ,तुम जरा बच्चों को देख लो कि अभी तक क्यों नहीं लौटे,मैं भी चलते समय मिलता जाऊँ ,उन दोनों से,दयाशंकर बोला।।
लेकिन अभी तक तुम्हारी टोली के और भी लोग आने बाक़ी है ना,जब सब पहुँचेगे तभी तो निकलोगें घर से,मंगला बोली।।
हाँ,आ ही रहे होगें सब,दयाशंकर बोला।।
ठीक है तो बाहर जाकर देखती हूँ और इतना कहकर मंगला बाहर आ गई, वो जैसे ही घर से बाहर निकली तो देखा कि बेला और संदीप चले आ रहें हैं,मंगला की गोद में छिपें दो साल के प्रदीप ने जब अपने भाई बहन को देखा तो मारें खुशी के किलक पड़ा।।
आज इतनी देर कैसे हो गई तुम दोनों को? मालती ने पूछा।।
वो आज मास्टर जी के साथ हम सब भी कक्षाओं की सफाई करवाने लगे इसलिए देर हो गई, पहले हम सबने टाट समेटे फिर झाड़ू लगाई ,मास्टर जी ने हमें मीठी मीठी सन्तरे वाली गोलियां दी,संदीप बोला।।
अच्छा!चलो तुम दोनों भीतर चलों तुम्हारे बापू बाहर गाँव जाने वाले हैं, मंगला बोली।।
तभी उन्हें लीला भी आती दिखाई दी और लीला ने पास आकर पूछा कि तुम सब यहाँ क्या कर रहें हो?
कुछ नहीं लीला जीजी! बच्चों को पाठशाला से लौटने मे देर हो गई थीं इसलिए बाहर इन्हें देखने चली आई थी,मंगला बोली।।
अच्छा! ये बताओ,दया भइया का सब समान ठीक हो गया,कहीं कुछ छूट ना जाएं,नहीं तो पिछली बार की तरह भुनभुनाते रहेंगे, लीला हँसते हुए बोली।।
हाँ,जीजी! सब तैयार कर दिया और उनसे कह भी दिया है कि सब देख लीजो,ऐसा ना हो कि कहीं कुछ छूट जाएं, मंगला बोली।।
अच्छा! चलो,टोली के और लोग भी आने वाले होगें, लीला बोली।।
और कुछ ही देर में टोली के और लोग भी अपनी अपनी बैलगाड़ियाँ लेकर आ पहुँचे,दयाशंकर ने अपना समान भी बैलगाड़ी में रखना शुरू किया जैसे कि बिस्तर बंद,एक सन्दूक और कुछ खाने पीने का समान,बच्चे बापू को बाहर गाँव जाते हुए देख उदास हो उठे थे,उन्हें उदास देखकर दयाशंकर का मन भी भर आया और सबके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला कि सब अपना ख्याल रखना और अपनी माँ को ज्यादा तंग मत करना और इतना कहकर लीला और दयाशंकर बैलगाड़ी में जा बैठे और दयाशंकर की बैलगाड़ी अपनी टोली के संग बाहर गाँव के लिए चल पड़ी।।
यही होता रहता है दयाशंकर के साथ,क्योंकि उसका काम ही ऐसा है, उसकी टोली एक नौटंकी के लिए काम करती है और उसमें नाचने और गाने का काम लीला करती हैं, नौटंकी का मालिक ही तय करता है कि नौटंकी अब किस गाँव में होगी और इसलिए दयाशंकर को अपनी टोली के संग उस गाँव पहले से पहुँचना पड़ता है क्योंकि मालिक के पास उसकी खुद की मोटर है तो वो वहाँ फुर्र से पहुँच जाता है लेकिन इन लोगों को दो तीन पहले से चलना पड़ता है और जगह जगह पड़ाव डालकर आराम आराम से चलते चलते पहुँचते हैं, सफर के लिए वे सब आटा,दाल, चावल और मसाले भी साथ ले जाते हैं जहाँ कहीं कुएँ या तालाब के पास ढंग की जगह मिली वहीं रूककर खाना पकाकर खा लेते हैं कभी कभी कोई गाँव मिला तो वहाँ से तरकारी भी खरीद लेते हैं, बस ऐसे ही चल रही है दया की जिन्द़गी।।
और वहाँ मंगला भी अपने पति और परिवार की भलाई के लिए सब तीज त्यौहार अच्छे से मनाती है, कोई भी व्रत नहीं छोड़ती ताकि उसका परिवार और पति हमेशा सही सलामत रहें।।
और लीला का अपना कहने के लिए कोई भी नहीं है उसका नौटंकी वाला काम किसी को पसंद नहीं इसलिए परिवार ने उसे छोड़ दिया और ये नौटंकी का काम उसने अपने भाई बहनों को पालने के लिए ही शुरु किया था लेकिन अब वो सब अपनी अपनी सही जगह पहुँच गए तो लीला का ये काम उन सबको गंदा लगता है, लीला भी अभागी है बेचारी, जिन भाई बहनों के लिए उसने अपनी जवानी बर्बाद कर दी उन लोगों को पालने की खातिर ब्याह नहीं किया,वही लोग आज उससे और उसके इस काम से नफरत करते हैं, बहुत कम उम्र थी लीला की जब उसने ये काम शुरु किया था,जैसे तैसे गलियों में नाच गाकर सबका पेट पालती थी फिर एक दिन नौटंकी के मालिक की नजर उस पर गई और वो नौटंकी की जानी मानी कलाकार बन गई लेकिन अब वैसी हिम्मत कहाँ रह गई है, शरीर में वैसी लचक और तरावट ना रही,मालिक से छोड़ने के लिए भी नहीं कह सकती क्योंकि बहुत एहसान है उनके लीला पर।।
इसलिए वो दयाशंकर को ही अपना भाई मानती है, उसके परिवार को ही अपना परिवार मानती है, उसी ने ही नौटंकी के मालिक से सिफारिश करके दयाशंकर को इस काम पर रखवाया था।।
आज नौटंकी कृष्णनगर जा रहीं, वहाँ जमींदार शक्तिसिंह के छोटे भाई मानसिंह के बेटे का दसवाँ जन्मदिन है, उसका जलसा है,शक्तिसिंह ने कहा कि जलसे में कोई भी कमी नही रहनी चाहिए, किसी मशहूर नौटंकी टोली को इस जलसे मे बुलाया जाएं,दयाशंकर की नौटंकी वाली टोली को तय किया गया वहाँ के जलसे के लिए।।
दयाशंकर और उसकी टोली को पूरे तीन दिन लग गए कृष्णनगर पहुँचने में ,रास्तें में उन्होंने एक दो जगह पड़ाव भी डाला,ठहर ठहर पहुँचे आराम आराम से,नौटंकी की टोली शक्ति सिंह की हवेली पहुँची, पहले टोली शक्तिसिंह से भेंट कर ने पहुँची,जब लीला ने शक्तिसिंह को देखा तो वो चौंक पड़ी और कुछ ना बोली और शक्तसिंह भी लीला को देखकर हैरान हो उठा।।
रात को जलसा शुरू हुआ,एक तरफ खाना पीना और दूसरी ओर लीला का नाच,लीला के ऊपर इतने नोट उड़ाए गए कि उसका आँचल भर गया,रूपए बीनते बीनते,आधी रात तक जलसा चला,फिर लीला कुछ देर के लिए सबसे अलग एकांत में आकर बैठ गई और सोचने लगी कि जिन्द़गी आज फिर उसे उस मोड़ पर ले आई हैं जहाँ से उसने रास्ता बदल लिया था।।
तभी शक्तिसिंह भी लीला को ढ़ूढ़ते हुए उसके पास आ पहुँचे और बोले___
अभी भी वही नजाकत है तुम में,जरा भी फर्क नहीं पड़ा,अब भी बिजली की तरह ही नाचती हो।।
शुक्रिया! अब मैं जाती हूँ, लीला बोली।।
इतने सालों बाद मिली हो और छोड़कर जा रही हो,कभी तो मुझसे अपने मन की बात कह दी होती तो मैं कभी भी तुम्हें इस गंदगी में नहीं रहने देता,शक्तिसिंह बोला।।
जब मेरे मन में कुछ था ही नहीं तो क्या कहती आपसे,लीला बोली।।
झूठ....बिल्कुल झूठ, तुम मुझसे पहले भी मौहब्बत करती थी और शायद अब भी करती हो,शक्तिसिंह बोला।।
मुझे जाने दीजिए जमींदार साहब आपके परिवार ने हम दोनों को साथ में देख लिया तो गज़ब हो जाएगा, लीला बोली।।
मेरे परिवार में मेरे भाई और उसके परिवार के अलावा और कोई नहीं, शक्तिसिंह बोला।।
तो क्या आपने ब्याह नहीं किया,लीला ने पूछा।।
कैसे करता? आँखों में तो तुम बसीं थी,शक्तिसिंह बोला।।
मेरे पास बेफिजूल बातो के लिए वक्त नहीं,मैं जाती हूँ, लीला बोली।।
कहाँ जाती हो? लीला! अपने दिवाने का हाल ना पूछोगी, शक्तिसिंह बोला।।
नहीं, मुझे कुछ नहीं पूछना,लीला बोली।।
इतनी कठोर ना बनो,पहले भी तुम एक बार मेरी मौहब्बत को ठुकरा चुकी हो और अब फिर से,शक्तिसिंह बोला।।
लेकिन मैने तो आपसे कभी नहीं कहा कि मैं आपसे मौहब्बत करती हूँ, लीला बोली।।
तुम्हारी अगर यही मर्जी है तो जाओ भला! तुम्हें रोकने वाला मैं कौन? शक्तसिंह बोला।।
इतना सुनते ही लीला वहाँ से चली आई और जो कोठरी उन्हें ठहरने को दी गई थी उसमें दौड़कर भीतर चली गई और दरवाजे बंद करके फूट फूट कर रोने लगीं।।
रोते रोते उसे कुछ हल्ला सुनाई दिया,लोग बचाओ....बचाओ चिल्ला रहे थें, तभी दयाशंकर ने दरवाजा खटखटाया और चिल्लाया,जल्दी खोलो दरवाज़ा, कौन हैं भीतर?
मैं हूँ भइया! लीला,अभी खोलती हूँ दरवाजा,लीला बोली।।
और लीला ने दरवाज़ा खोला,दरवाजा खोलते ही उसने दयाशंकर से पूछा क्या बात है? जो ये हल्ला हो रहा है।।
अरे,हवेली पर और गाँव पर डाकुओं का हमला हुआ है, भाजी तरकारी की तरह लोगों को काट रहे हैं और जो बन रहा है सब लूटकर ले जा रहे हैं, दयाशंकर बोला।।
तो अब क्या होगा भइया! लीला ने पूछा।।
इसी कोठरी में छुपे रहो,इसके सिवा और कोई चारा नहीं और दीपक भी बुझा दो,दयाशंकर बोला।।
ठीक है ,लीला बोली।।
और तभी उनकी कोठरी की किसी ने साँकल खटखटाई,अब दोनों ही बहुत डर गए.....

क्रमशः___
सरोज वर्मा___